रची ऋतुराज ने हर डाल पर कलियों की रंगोली 
पकी फैसले हैं खेतों में छटा एकदम लगे पीली 
गुलाबी रंग गालों का हुआ हुआ उड़ते गुलालो से 
लगे मानो प्रकृति ही खुद मनाने को चली होली !

गिरी नफ़रत की दीवारें चले बनकर के सब टोली 
ज़हर थी जो ज़बाने वो बनी अब प्रेम की बोली 
जो उलझे थे बिना मतलब के इक दूजे से झगड़े में 
भुला मतभेद मिलजुलकर मनाएं प्रेम से होली !

बरसता प्रेम फागुन में समेटो भर लो अब झोली 
समूची सृष्टि ने मानो इसी दिन आंख है खोली 
तरसते होंठ व्याकुल मन हृदय उद्विग्न था जिनका 
बना रसमय सकल तन मन हुईं कुछ इस तरह होली !

                                   ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'


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