नतीजों का नतीज़ा

वैसे तो भविष्य में क्या होगा इसको लेकर भविष्यवाणी करना मनुष्य के बस के बाहर की बात है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को ध्यान में रखकर कयास जरूर लगाया जा सकता है। 2022 के पांच राज्यों के नतीजों के आधार पर उसमें भी खासकर उत्तर प्रदेश के नतीजों से आने वाले कल की कुछ झलक जरूर देखने को मिलती है।
इन नतीजों से कम-से-कम हमको इतना जरूर पता चलता है कि भविष्य में भारत की राजनीति की दिशा क्या है।
उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी की वापसी कोई मामूली घटना भर नहीं है। ये दर्शाती है कि उत्तर भारत के नागरिकों में किस हद तक भारतीय जनता पार्टी की जड़ें फैल चुकी हैं।
हारने के बाद कोई कितना भी मजाक उड़ाए या कमियां निकाले पर अगर गहराई से मूल्यांकन किया जाये तो पता चलेगा की अखिलेश यादव ने बीजेपी के सामने अब तक का सबसे व्यवस्थित और मजबूत चुनाव लड़ा है। अखिलेश यादव ने अपने चुनावी प्रचार में नेतृत्व की उन ऊंचाईयों को छुआ जो किसी भी नेता के लिए आसान नहीं है। छोटे दलों को अपनी पार्टी से जोड़ने से लेकर प्रत्याशियों को टिकट देने तक अखिलेश की सूझबूझ और समझ की पराकाष्ठा को दर्शाता है। इतने बड़े प्रदेश के चुनाव प्रचार में उनके प्रबंध तंत्र कबीले तारीफ थी।
जिनको नहीं पता उनको बता दूँ, अब चुनाव मैनेजमेंट कोई खिलवाड़ बात नहीं है। अब ये एक उद्योग हो गया है। अमेरिका और यूरोपीय देश और अब यहां तक भारत में भी बड़ी बड़ी फर्में खुल गई हैं। जो नेता पार्टी का मुख्य चेहरा होते हैं उनकी सकारात्मक इमेज को बनाए रखने के लिए ये पार्टियां इन कंपनियों पर पानी की तरह पैसा बहाती हैं। ये कंपनियां लगातार सोशल मीडिया,न्यूजचैनल..एडवर्टाइजिंग  के माध्यम से इस काम को अंजाम देती हैं। मनोविज्ञान पर हो रहे आधुनिक शोध के बदौलत ये कंपनियां एक पार्सपेक्टिव तैयार करती हैं। इतनी बारीक से बारीक और छोटी छोटी बातों का भी ध्यान रखा जाता है कि आप अचरज मान जाएंगे। नेता क्या पहनेंगे..किस तरह बोलेंगे.. किस तरह हाथ हिलाकर अभिवादन करेंगे और यहां तक एक अमेरिकी मूवी के खुलासे के अनुसार वहाँ के नेता जो जूता पहनते हैं उसके तल्ले कितना घिसा होना चाहिये, इसका भी ध्यान रखा जाता हैं।ऐसी प्रचार कंपनियां जहां भी चुनाव की जिम्मेदारी लेती हैं वहां की जनता के मनोविज्ञान का बहुत ही गहन और विस्तृत अध्यन करती हैं, फिर उसी के आधार पर प्रचार तंत्र तैयार किया जाता है। 
यहां अचरज की बात ये है हम आप जान ही नहीं पाते हैं कि कैसे ये प्रचार तंत्र हमारे अचेतन मन पर अपनी पैठ बनाकर हमारी मनोधारणा को धीरे धीरे बदल देता है। और इस तरह जमीनी मुद्दे गायब होने लगते हैं।
उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में इस सब का सभी पार्टियों द्वारा अपनी क्षमता अनुसार खूब प्रयोग किया गया। और इसको मानना पड़ेगा कि अखिलेश ने देश की सबसे बड़ी और पैसे वाली पार्टी बीजेपी को जबरदस्त चैलेंज दिया। और कई मामलों में उसे हतप्रभ भी किया। 
इसे महाभारत के एक उदाहरण से समझते हैं -
अर्जुन और कर्ण के बीच भयंकर युद्ध चल रहा था। दोनों योद्धा एक दूसरे को जबरदस्त टक्कर दे रहे थे। अर्जुन तीर चलाते तो कर्ण का रथ सौ कदम पीछे तो जाता और जब कर्ण तीर चलाते तो अर्जुन का रथ दो कदम पीछे चला जाता। ऐसा होने पर अर्जुन के सारथी कृष्ण मुस्कराकर कर्ण की तारीफ करने लगते। ये बात अर्जुन को अच्छी नहीं लगी। और वो कृष्ण से बोले, " हे केशव, मेरे बांणो की बौछार से कर्ण का रख सौ कदम पीछे हो जाता है, तब आप कुछ नहीं बोलते जबकि कर्ण के तीरों से मेरा रथ मात्र दो कदम पीछे होता है। फिर भी आप कर्ण की तारीफ कर रहे हैं। ऐसा क्यूँ?"
कृष्ण बोलते है, "अर्जुन! तुम पहले ये देखो की तुम्हारे रथ से कर्ण के रथ की तुलना ही क्या है। कर्ण का रथ साधारण रथ है जबकि तुम्हारा रथ वरुण देवता द्वारा दिया गया 'नंदीघोष' रथ है, जो अपने आप मे अद्भुत है। उस पर भी हनुमान जी तुम्हारे रथ पर बैठे हैं। तुम्हारा तरकश "अक्षय तरकश" है, जिसमें कभी तीर खत्म नहीं होते। और इसके साथ तीनों लोकों का भार लिए मैं स्वयं तुम्हारे रथ पर बैठा हूं। ऐसे रथ को दो कदम पीछे कर देना ये दर्शाता है कि कर्ण कितना महान धनुर्धर है।ऐसे मे मेरे मुह से उनकी प्रशंसा निकलना स्वाभाविक है।"
कुछ ऐसा ही हाल अखिलेश का भी था। टीवी.. सोशल मीडिया..न्यूज चैनल..न्यूज पेपर सभी माध्यमों द्वारा बीजेपी ने आक्रमक प्रचार किया। स्वयं साक्षात चक्रवर्ती प्रधानमन्त्री जी द्वारा दिन-रात एक करके प्रचार किया गया। इधर से नेताओं की फौज थी उधर से सिर्फ अखिलेश! फिर भी कहीं से देखने मे नहीं लगा कि अखिलेश का प्रचार कमजोर है। 
अगर इन नतीजों की बात करे तो इतना जरूर पता चलता है कि इस चुनाव को जीतने के बाद बीजेपी का उत्तर प्रदेश मे अब कोई विपक्ष नहीं रह गया है। इस चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी.. बसपा..रालोद आदि क्षेत्रीय पार्टियों का पतन शुरू हो जाएगा। कॉंग्रेस का राष्ट्रीय स्तर पर तो लगभग हो ही चुका है। बसपा प्रमुख मायावती जी की पार्टी ने तो हद ही कर दी। इस चुनाव से इतना जरूर पता चलता है कि मायावती में कांशीराम वाली न बात है और न ही वो त्याग भावना है। वो अपने अलावा किसी को नेता मानने के लिए तैयार नहीं हैं। पार्टी का कोई दूसरा चेहरा उन्होंने किसी को बनने ही नहीं दिया। भीम आर्मी वाला चन्द्रशेखर आजाद पश्चिम यूपी मे एक उभरता हुआ दलित चेहरा है, लेकिन मायावती ने उससे पूरी तरह दूरी बना के रखी है। विश्वास मानिए अगर उनकी जगह कांशीराम होते तो ऐसा नहीं करते। चन्द्रशेखर युवा हैं,...उनकी दलित युवाओं मे एक पहचान है। कांशीराम इसको भुनाने और उन्हें मायावती की ही तरह अपनी पार्टी का चेहरा बनाते। पर मायावती जी ऐसा नहीं कर पाई जिसका परिणाम एक सीट के रूप में उनके सामने है।
देखा जाए तो यूपी चुनाव में बीजेपी के सामने अब तक की सबसे विपरीत परिस्थितियां थी।पश्चिम मे किसान जाट नाराज थे। मध्य यूपी के किसान छुट्टा जानवरों से त्रस्त थे। कोरोना से जनता त्रस्त थी।एंटी इनकम्बेन्सी थी।ये सब होते हुए भी उसने जैसा प्रदर्शन किया है ये अपने आप में एक उदाहरण है। ऐसे मे भी इतनी सीटें लाने का मतलब है कि अब इस ने चुनाव कैवल्य को प्राप्त कर लिया है। अगले कई सालों तक दूर दूर तक चुनावों में इसे हारने वाला कोई नहीं दिख रहा है। भले ही मोदी की बात विपक्ष को चुभे लेकिन सच यही है कि अब परिवारवादी जातिवादी पार्टियों के पतन का समय शुरू हो गया है। यूपी 2022 के चुनाव ने इसकी शुरुआत कर दी है।
2022 में ही पंजाब चुनाव में आप पार्टी की इतनी शानदार जीत ने एक इशारा जरूर किया है।भविष्य में कोई पार्टी बीजेपी को चैलेंज कर सकती है तो वो आम आदमी पार्टी ही है।इसके पीछे के कई कारण है जो मुझे नजर आते हैं।
आम आदमी पार्टी का उद्भव जिस मुद्दे को लेकर हुआ है या कह ली लिए जिस आंदोलन से हुआ है वो अपने आपमें अनोखा है। इसे ऐसे समझते हैं, जिस पार्टी का जन्म जिन मुद्दों या विचारधारा को लेकर होता है वो विचारधारा या मुद्दे जब तक प्रासंगिक रहती हैं तब तक वो पार्टी जीवित रहती है। जहां एक तरफ भारत की ज्यादातर पार्टियां एक विशेष जातिवादी आंदोलन का परिणाम हैं वही बीजेपी जैसी पार्टी एक धार्मिक विचारधारा के प्रभुत्व का प्रतिनिधित्व करती है।
आधुनिक भारत खास कर शहरी भारत में अब जातिवाद उतना बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है। और समय के साथ-साथ ये और कमजोर होगा, हाँ अपने धर्म और संस्कृति के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। ऐसे में जो पार्टियां केवल जातिवाद या उससे जुड़े मुद्दो के आधार पर ही सत्ता में आती थीं अब उनका पतन शुरू हो गया है।
आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता द्वारा किए गए आंदोलन की देन है। और भ्रष्टाचार और गुड गवर्नेंस एक ऐसा मुद्दा है जो आधुनिक समाज के लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरी बात आम आदमी पार्टी को एक नई पार्टी होने का भी फायदा मिला है।उसके ऊपर अभी तक किसी जाति या धर्म का समर्थक होने का आक्षेप नहीं लगा है। अरविंद केजरीवाल साॅफ्ट हिन्दुत्व को अपनाकर पढ़े लिखे मध्य वर्ग में अपनी पैठ बनाने मे कामयाब हो गए है।दिल्ली चुनाव के दौरान जब जावा मस्जिद द्वारा उनके समर्थन में मुसलमानों को वोट करने को कहा गया तो केजरीवाल ने इसका विरोध किया। वो फूंक फूंक कर कदम आगे बढ़ा रहे हैं। वो चुनाव परिणाम आने के बाद हनुमान मंदिर जाते हैं या कम-से-कम दिखावा करते हैं कि वो हनुमान भक्त हैं। उनको पता है कि उनकी लड़ाई किससे है।
वो अपनी पार्टी के नए आईकान चुन रहे हैं। चुनाव जीतने के बाद जब केजरीवाल बाहर निकल कर अपना भाषण दे रहे थे तो जो पोस्टर उनके पीछे था उसपर अंबेडकर और भगतसिंह की तस्वीर थी। वो अपने प्रबंध तंत्र के माध्यम से एक नया पार्सपेक्टिव बनाना चाहते हैं। लेकिन थोड़ा बारीकी से देखने पर पता चलता है कि वो भी अपने आपको पार्टी का एक मात्र चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। जैसे जब जीतने के बाद भगवंतमान जनता के समाने आए तो उनके पीछे जो पोस्टर था उसमें केवल अरविंद केजरीवाल ही थे। कुल मिलाकर हर जगह और हर पार्टी में पोस्टर वार है।
2022 चुनाव के नतीजों से 2024 के चुनाव के नतीजे भी निर्धारित हो गए हैं। ये बात तो हर न्यूज चैनल के साथ पक्षी और विपक्षी दोनों ने ही सहर्ष स्वीकार कर लिया है। ये बात लगभग सभी ने मान ली है कि मोदी जब तक चुनाव लड़ेंगे वही जीतेंगे। यानी 2024 चुनाव को लेकर विपक्ष के पास कुछ खास नहीं है। अब बारी 2029 के चुनाव के आती है। हर दल उसी की तैयारी में लगेगा। अब देखना ये है कि मोदी अपना उत्तराधिकारी किसे चुनते हैं। और ये जंग सीधे तौर पर अमित साह और योगी के बीच होगी। अगर अमित शाह चेहरा होंगे तो ये भविष्य ही बतायेगा की वो प्रधानमंत्री बनते हैं या दूसरे आडवाणी बन कर रह जाएंगे। अगर योगी चेहरा होंगे तो शायद केजरीवाल और योगी के बीच एक जबरदस्त मुकाबला देखने को मिलेगा। 
कुछ बाते समय के साथ ही पता चलती हैं, और समय किसी की बपौती नहीं होता।अतः समय से पहले समय का अंदाजा लगाना कठिन होता है।इसलिए इसे समय पर ही छोड़ देते हैं।

                              ©️ दीपक शर्मा 'सार्थक'

Comments

  1. बहुत व्यापक विश्लेषण परंतु आपकी अंतिम पंक्ति कि समय से शक्तिशाली कोई नहीं शाश्वत सत्य है ।

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  2. अच्छा लिखा है।बधाई!

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