दृष्टिकोण

क्यों करते हो मजबूर मुझे
अपने पदचिन्ह पे चलने को!
क्यों करते हो मजबूर मुझे
अपने विचार में पलने को !

जिस दृष्टि से तुमने दुनियां को
देखा समझा और जाना है
जिस दृष्टि से तुमने बुन डाला
सामाजिक ताना बाना है
अब करते हो मजबूर मुझे
उस दृष्टिकोण में ढलने को !
क्यों करते हो मजबूर मुझे
अपने पदचिन्ह पे चलने को !

क्या एक ही दृष्टि से दुनियां का
पूरा विश्लेषण संभव है ?
क्या एक की बुद्धि से दुनियां का
पूरा संप्रेषण संभव है ?
फिर क्यों आमादा बैठे हो
मेरे जज़्बात निगलने को !
क्यों करते हो मजबूर मुझे
अपने पदचिन्ह पे चलने को !

मेरे उन्मुक्त विचारों को
तुम कैद नहीं कर पाओगे
मैं क्षित हूँ जल हूँ पावक हूँ
छूते ही तुम जल जाओगे
हूँ बीज, दरख़्त छुपा मुझमें
देरी है खाक़ में गलने को !
क्यों करते हो मजबूर मुझे
अपने पदचिन्ह पे चलने को !

            © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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