हिमालय सा स्थिर
नदी सा तरल हूँ
हृदय में है अमृत
जुबां से गरल हूँ !

सतह पर हूँ बहता
कभी गहरा तल हूँ
कहीं हूँ अस्थिर
कहीं पर अटल हूँ !

कभी आने वाला
कभी बीता कल हूँ
युगों तक हूँ रहता
कभी एक पल हूँ !

बहुत उल्झे प्रश्नो का
सुलझा सा हल हूँ
दहकती सी अग्नि पे
शीतल सा जल हूँ !

मुझमे है खंडहर
मैं ही महल हूँ
अंत हूँ कहीं तो
कहीं पे पहल हूँ!

परिस्थिति हो जैसी
उपस्थिति है वैसी
जटिल हूँ कभी तो
कभी मैं सरल हूँ !

     © दीपक शर्मा 'सार्थक'

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