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पंडित छन्नूलाल मिश्र

पठ्यं गीत्यं च मधुरं प्राणिनां प्राणमुत्तमम्। प्रीयमाणं जनैः सर्वैः त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्॥ (वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड 4.7) शास्त्र कहते हैं कि पाठ करने में या गाने में मधुरता का खयाल रखो। आज ये ज्ञान देने वाला चला गया। रैप म्यूजिक ( या कह लो संगीत का रेप{बलात्कार} ) पसंद करने वाले या दोअर्थी अश्लीलता भी जिसे देख के शर्मा जाए ऐसे भोजपुरी गाने सुनने वाले लोग शायद जान भी नहीं पाए कि शास्त्रीय संगीत में ओश की तरह कोमल ठुमरी, कजरी गाने वाले पंडित छन्नूलाल मिश्र अब नहीं रहे। "कुछ भी बोलने में या गाने में मधुरता का खयाल रखो !" पंडित जी का ये ज्ञान वो समाज समझेगा भी कैसे जिसे मधुरता का मतलब तक नहीं पता। और फिर आजकल मधुरता का खयाल किसे है!! ये वो समाज है जिसे पंडित भीमसेन जोशी के अलाप पर हंसी आती है, जिसे बिस्मिल्ला खां की शहनाई की वेदना वाली धुन.. पीपहरी की बोझिल तान लगती है। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो ऐसे लोग किस पर हंस रहे हैं ?? दरअसल वो अपनी मूर्खता के कारण खुद पे हंसते हैं, क्योंकि शास्त्रीय संगीत इतना पवित्र और व्यापक है कि उनकी तुच्छ बुद्धि वहां तक पहुंचती ही नहीं, और यही ...

ट्रंप चाल

वर्तमान समय में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ताश के पत्तों में खेले जाने वाले ’दहिला पकड़’ खेल में चुने गए ’ट्रंप के पत्ते’ का रुतबा एक सा नजर आ रहा है। जिन्होंने ये खेल नहीं खेला उनको बता दूं, ये एक ऐसा खेल है जिसमें एक वेराइटी वाले पत्ते को ट्रंप मान किया जाता है। खेल में कोई कितना भी बड़ा पत्ता फेंके किन्तु यदि उसके सामने ट्रंप की दुक्की भी आ गई तो वो उस दूसरे पत्ते पर भारी मानी जाती है। अमेरिकी राष्ट्रपति को उनका ये रुतबा, उनके प्रभावशाली देश की अर्थव्यवस्था से मिला हुआ है। राम चरित मानस में एक चौपाई से इसे समझा जा सकता है "परम स्वतंत्र न सिर पर कोई।  भावइ मनहिं करहु तुम्ह सोई॥" और ये कोई आज की बात भी नहीं है, द्वितीय विश युद्ध के बाद से ही अमेरिका ने विश्व में अपनी पकड़ इतनी मजबूत कर ली है कि आज वो पूरे विश्व का चौधरी बना फिर रहा है। आज उस विषय पर चर्चा केवल इसलिए हो रही है क्योंकि अमेरिका ने  ’एज1बी’ पर सालाना शुल्क एक लाख अमेरिकी डॉलर तक बढ़ा दिया है।टैरिफ वार के बीच ये एक और धमाका है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था हिल गई है। सबसे ज्यादा (लगभग70%) ये बीजा धारी भारतीय...

किस काम का सावन

रह गया है किस काम का सावन  है प्यारे बस नाम का सावन नज़र नहीं आते पेड़ों पर पहले जैसे झूले व्यस्त हैं सब दुनियादारी में रिश्ते नाते भूले बने विदूषक फिरते हैं अब इंस्टा पर ये नचनिये  कजरी और मल्हार के बदले रैप में गाली सुनिए हरियाली और तीज है गायब किसको याद करेगा सावन ! रह गया है ..... पुरवाई में ज़हर घुला है धुंधला हुआ नज़ारा  नहीं भीगता बारिश में अब बच्चा कोई बेचारा गांवों में चौपाल न लगती दूषित हुई फुहारें द्वेष लिए फिरते हृदयों में कैसे कोई उबारे बंजर अंतःकरण को आखिर कब तक यूं सींचेगा सावन ! रह गया है ....             © दीपक शर्मा ’सार्थक’

मै भूल जाता हूं

मैं भूल जाता हूं.. चेहरे और उनके नाम  उनकी अवसरवादी सधी सपाट बातें यहां तक कि पहचान भी ! मुझे याद रह जाते हैं, कोई बेमकसद सा अहसास  हल्की सी छुवन कुछ कोरी कल्पनाएं यहां तक कुछ अधूरे अरमान भी  हां ! ये सच है कि मै भूल जाता हूं .. जो साथ हैं उन्हें या सच कहूं  जो बस दावा करते हैं  साथ होने का, दिखावा करते हैं अपना होने का, और वो बाजारू जुबान भी !! मुझे याद रह जाते हैं कुछ बेसबब से किस्से,  बिना वजह वाले रिश्ते, वो जो दिल को छू लें भले हो कोई शख्स अंजान भी !!!          © दीपक शर्मा ’सार्थक’

क्या जानोगे !

और बताओ क्या जानोगे  पास तो आओ क्या जानोगे ! कहते हो सब जान गए हो बस मगरुर हो, क्या जानोगे ! मैं ही जब अंजान हूं खुद से फिर तुम मुझको क्या जानोगे ! चेहरा देख के दर्द न जाना कह भी दें तो क्या जानोगे ! जब सारा जग जान गया है तब जाना तो क्या जानोगे ! दर्द में जो खुल के हंसता हो उसके दर्द को क्या जानोगे  जान है जबतक जान लो मुझको जान गई तो क्या जानोगे !              © दीपक शर्मा ’सार्थक’           

तब देखेंगे

शोख़ अदाएं तब देखेंगे प्यार दिखाए तब देखेंगे बहक गया हूं नशे में यारों कोई उठाए तब देखेंगे ! सुनता हूं वो बहुत है अच्छा पास तो आए तब देखेंगे ! ख़ता भी मेरी, रूठा भी मैं कोई मनाए तब देखेंगे ! चोर घुसे हैं घर में, कोई  शोर मचाए तब दिखेंगे! वो देखो वो डूब रहा है डूब ही जाए तब देखेंगे ! आग लगी है शहर में अपने कोई बुझाए तब देखेंगे ! घड़ा पाप का अभी है खाली फूट ही जाए तब देखेंगे ! रिश्ते में दरार है आई टूट ही जाए तब देखेंगे !            © दीपक शर्मा ’सार्थक’

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक ! देश पे हमला करने वाले  आतंकी से है हमदर्दी हमले की निंदा यदि करते सतही और लगे है फर्जी दही भिगो के जूते मारूं मन करता है ऑटोमैटिक वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक !! चाटुकार चमचे और चिंटू चाट रहे तलवे आतंकी थू है ऐसी राजनीति पर कायर शठ करते नौटंकी धर्म है इनका ’शरीयत’ लेकिन बनते हैं ये डेमोक्रेटिक  वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक !! राष्ट्र से ऊपर धर्म है जिनका उनका नहीं भरोसा करना जाहिल कट्टर और हिंसक से सदा बना के दूरी रहना गाली नहीं इन्हें दो ’गोली’ मांग रहे एंटीबायोटिक  वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक!!         © दीपक शर्मा ’सार्थक’