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एक अकेला मै

लाखों परंपराएं जग में एक अकेला हैं  सोचा था कि रूढ़िवादिता से बच जाऊंगा दकियानूसी सोच के हत्थे कभी न आऊंगा पहली बॉल पे कैच हुआ कुछ ऐसा खेला मैं लाखों परंपराएं जग में एक अकेला मैं ! मौलिकता का अंकुर उर से निकला था जैसे भेंड़ चाल चलने वालों ने निगल लिया वैसे तर्कहीन एवरेस्ट के जैसे बस एक ढेला मैं लाखों परंपराएं जग में एक अकेला मैं ! घिसी–पिटी परिपाटी जैसे  रट्टू तोता वो सड़ी व्यवस्था को सदियों से सिर पर ढोता वो ईश्वर जाने इनकी संगत कैसे झेला मैं लाखों परंपराएं जग में एक अकेला मैं !             © दीपक शर्मा ’सार्थक’

प्रेम का पूर्वाग्रह

प्रेम की वर्षा से बच करके चलने वाला छाता तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! प्रेम को लेकर भ्रामक खबरें सदियों से फैलाया है प्रेम कठिन है, प्रेम असंभव सबको यही बताया है प्रेम की गरदन काट रहे जो वो बल्लम और काता तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो !  (१) ज़हर तुम्हारे अंदर है और प्रेम तुम्हे विष लगता है दूषित कुंठित सोच जहां हो कैसे प्रेम पनपता है ? प्रेम के गाल पे पड़ने वाला अवसरवादी चाटा तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! (२) मनगढ़ंत गढ़ डाली कितनी प्रेम की तुमने परिभाषा कहीं बताया ’आग का दरिया’ कहीं लिखा बस अभिलाषा प्रेम पे ऐसे भाषण देते  जैसे भाग्यविधाता तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! (३) सच पूछो तो प्रेम से कोमल प्रेम से सुंदर क्या होगा प्रेम में होना, प्रेम का होना प्रेम सा चिंतन क्या होगा  प्रेम का मौन नहीं समझा जो वो फैला सन्नाटा तुम हो प्रेम के पथ पर, पग में सबके चुभने वाला कांटा तुम हो ! (४)                © दीपक शर्मा ’स...