चुल्ल मुक्त देश

                                                                        चुल्ल मुक्त देश

हाल ही में रिलीज़ हुई मूवी कपूर एण्ड सन्स का एक गाना -
'लड़की व्युटीफूल  कर गई चुल्ल' हो
या फिर सिंह इज ब्लिंग का लोकप्रिय गाना -
'दिल करे चूँ चां चूँ चां चूँ' हो
ये  आज कल  के नए ज़माने के गानों को सुनकर पुराने ज़माने के लोग मुँह बिचका के कहते हैं की आज कल के गीतकारों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। हो क्या गया है आज के गीतकारों को?
लेकिन अगर गहराई से देखा जाये तो इसमें गीतकारों का क्या दोष है ,वो तो बिचारा बस वही लिखता है जो उसके वक्त के  जनरेशन की मनोदशा हो। पुराने गीतकार तो अपने गीतों में चाँद का ज़िक्र करते नहीं थकते हैं तो कुछ गीतकारों को अपनी प्रेमिका के खबसूरत थोबड़े से तुलना करने के लिए दुनियां में कुछ मिल ही नहीं रहा है।
ये पुराने गीतकार ऐसे गीत इसी लिए लिख पाए क्योंकि उस वक्त के जनरेशन की यही मनोदशा थी। उस वक्त का व्यक्ति प्रेम में मदहोश हो रहा था। प्रेमी प्रेमिका के मिलने या बिछड़ने पर संयोग या वियोग के रूप में प्रेम उत्पन्न हो रहा था लेकिन आज के यूथ में 'चुल्ल' उठ रही है।
ऐसे में अगर आज का  गीतकार,  'लड़की व्युटीफूल  कर गई चुल्ल'  के स्थान पर 'लड़की व्युटीफूल  कर गई मदहोश' कहे तो गीत में बनावटीपन आ जायेगा। गाने की मौलिकता ख़त्म हो जाएगी और यूथ उसे नकार देगा।
समय  के साथ समाज की मनोदशा भी तेजी से बदल रही है पर एक अच्छी बात ये है कि समाज अपनी मनोदशा की अभिव्यकि के लिए नए शब्द गढ़ लेता है। उसने 'चुल्ल ' भी गढ़ लिया।
अब सोचने वाली बात ये  है की आखिर ऐसा क्या हो गया है की आज के यूथ के दिल में प्रेम नहीं ,चुल्ल उठ रही है जिससे उसका दिल धड़कने की जगह चूँ चां चूँ चां कर रहा है।
लोग इसके चाहे जो कारण बतायें  पर मेरे हिसाब से इसका कारण ये है कि पिछली पीढ़ी के पास मज़ा लेने के लिए सीमित साधन थे, जिससे उसके पास प्रेम में पड़ने, घण्टो चाँद को देखने और मदहोश होने का टाइम था।
पर आज की युवा पीढ़ी के पास टाइम नहीं है क्योंकि मज़ा लेने के पचासों साधन जो पैदा हो गए हैं। फेसबुक, व्हाट्सप्प, ट्यूटर, मोबाइल, टी वी, हज़ारों चैनेल कितने तो मज़ा लेने से साधन पनपते जा रहे हैं। और सबका मज़ा भी लेना ज़रूरी है पर कमबख्त टाइम तो उतना ही है।
इसलिए सभी प्रकार का मज़ा लेने के चक्कर में वो जल्दी में है और इसी जल्दबाज़ी से उद्भव होता है सर्वव्यापी निराकार 'चुल्ल ' का।
वो जल्दबाज़ी में अपने सारे काम करता है। जल्दबाज़ी में खाना  भी खाता है इसी लिए फास्ट फूड का चलन चला है। फास्ट फूड मतलब जल्दी या दौड़ते हुए खाना। जल्दी में प्रेम भी कर लेता है अब इस आधुनिक यूथ के पास इतना टाइम कहाँ है की वो अपनी प्रेमिका के मुखड़े को याद करके सारी रात एक भौगोलिक पिंड (चाँद ) को देखे। अब उसके पास इतना टाइम कहाँ है जो अपनी प्रेमिका की रेशमी ज़ुल्फों को सुलझाए। अब तो वो जल्दी में है। एक शायर ने कहा भी है -
अभी उलझा हुँ ज़रा वक्त को सुलझाने में
मौका मिला तो तेरी ज़ुल्फ़ भी सुलझा लूँगा।
मौका कहाँ है और भी तो मज़े लेने हैं। इसी जल्दबाज़ी के कारण यूथ 'जैंटल मैन' से 'माचो मैन' में बदल रहा है। मेरे एक मित्र को ये' माचो ' शब्द, हिंदी की एक प्रचलित मां की गाली  से मिलता जुलता लगता है। वो कहते हैं की "हम पहले ही क्या कम थे जो एक दूसरे को गालियाँ देते थे जो अब खुद ही को माचो कहते फिरते हैं।
बात चुल्ल की हो रही थी आखिर इस जल्दबाज़ी से उत्पन्न चुल्ल का इलाज क्या है ?
मेरे वही मित्र के अनुसार 'चुल्ल' लाइलाज है पर सिगरेट आदि तम्माखू  उत्पादों के सेवन से चुल्ल थोड़ी देर के लिए शांत ज़रूर हो जाती है। उनका मानना है की सिगरेट और तम्माखू  का नशा गांजा भांग, दारु, और हीरोइन जैसा गहरा नशा नहीं होता है। सिगरेट पीने वालों को कभी नशे में बहकते नहीं देखा जाता है, इससे तो केवल चुल्ल शांत होती है तभी तो बेदर्द सरकार द्वारा लगातार टैक्स बढ़ाने के बावजूद इसकी बिक्री कम नहीं बल्कि बढती ही जा रही है।
सरकार सिगरेट निर्माता कंपनियों से कहती है कि पैकेट के 75 % भाग पर सड़ा हुआ मुँह बना होना चाहिए पर सरकार भी जानती है की लोग फिर भी तम्माखू  सिगरेट उत्पादों का प्रयोग करेंगे। उसे मालूम है की लोगों में चुल्ल मची है उसे शांत करना भी सरकार की ही ज़िम्मेदारी है। उसे डर है की अगर ज़्यादा देर तक चुल्ल उठती रही तो यूथ भड़क उठेगा और कोई न कोई बहाने से आपस में लड़ने लगेगा वो बहाना चाहे देशभक्ति हो या देशद्रोह हो।जैसे  कार्ल मार्क्स हर घटना के पीछे भौतिक द्वंद्व नज़र आता था ,मुझे तो अब चुल्ल नज़र आती है। भारत सरकार भी ये बात जानती है उसे पता है कि चुल्ल कैंसर से भी ज्यादा खतरनाक है तभी वो सिर्फ सिगरेट के पैकेट पर सड़े हुए मुँह बनाने की बात करती है।  अगर वो सच मे कैंसर को लेके गम्भीर होती तो उस सिवर ( फैक्ट्री) को ही बन्द नहीं कर देती जहॉ से गन्दगी सारे देश में फैल रही है।
पर वो तो दिखावे के लिए जनता से कहती है कि सिगरैट छोड़ दो लेकिन उसे मात्र अपने रोज के 500  करोड़   के राजस्व फिक्र है।
इस पर एक नसेड़ी का दर्द छलक उठा -
"एक सिगरेट की कीमत तुम क्या जानो मोदी बाबू ...सुबह सुबह प्रेसर बनाती हैये सिगरेट
लड़कियों को इम्प्रेस करती है ये सिगरेट....
और सबसे बड़ी बात चुल्ल शान्त करती है ये सिगरेट" । 
यूथ की इस भयानक समस्या पर मेरे अलावा किसी को फिक्र नहीं है।  हमारे देश के प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान एक कविता सुनाई थी-
है कसम मुझे इस धरती की
मैं देश नही मिटने दूंगा...
क्योकि उनकी नज़रो में देशद्रोह सबसे बड़ी समस्या है। पर मैं एेसा नही सोचता अगर मैं उनकी जगह होता तो इस कविता को कुछ इस तरह कहता-
है कसम मुझे इस धरती की मैं चुल्ल नहीं मचने दूंगा...
प्रधानमंत्री जी भले ही यूथ में व्याप्त इस चुल्ल रूपी समस्या से समझौता कर ले मैं नही कर सकता उन्हे कांग्रेस मुक्त भारत चाहिये और मुझे चुल्ल मुक्त।
                     
                                                                                    -- दीपक शर्मा 'सार्थक '

Comments

Popular posts from this blog

एक दृष्टि में नेहरू

वाह रे प्यारे डिप्लोमेटिक

क्या जानोगे !