परिधि के उस पार
कहा जाता है कि एक पौधे के विकास के लिए दो आवश्यक शर्ते होती हैं पहली उसकी बीज की गुणवत्ता , दूसरा उसको प्रदान किया गया वातावरण। बीज में चाहे जितने ही गुण क्यों न हो अगर उसे ऐसे ही फेंक दिया जाये तो उसके विकास की संभावनाए समाप्त हो जाती है। यही नियम मनुष्य के विकास पर भी लागू होता है लगभग सभी मनोवैज्ञानिक इस पर सहमत हैं की आनुवंशिक गुणों के साथ वातावरण भी बच्चों के विकास की प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
भारतीय परिवेश में बाल विकास की क्या स्थिति है यह एक गंभीर प्रश्न है, यहाँ की शिक्षा पद्धति तथा सामाजिक वातावरण सभी प्रश्न के घेरे में हैं। यहाँ पर अभिभावक अपने बच्चो को पूँजी की तरह समझते हैं जिस तरह पूँजी का निवेश होता है, उस पर नियंत्रण रखा जाता है उसी तरह यहाँ अभिभावक भी बच्चों का जिस क्षेत्र में चाहते हैं निवेश करते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं। उनके विचार, उनका द्रष्टिकोण सभी कुछ अभिभावक ही निर्धारित करते हैं। वे बच्चो के विचारों पर अपने खोखले आदर्शवाद और अनुशासन की मोटी परिधि बना देते हैं मजाल है कि कोई बच्चा इसके उस तरफ भी देख ले।
वे हस्तांतरित विचार, परम्पराये जो अभिभावकों को उनके अपने अभिभावकों से मिली होती हैं, के सहारे बच्चे अपना जीवन यापन करते हैं उसके बाद यहाँ ये रोना रोया जाता है कि यहाँ शोध नहीं हो रहे, आविष्कार नहीं हो रहे हैं, और होंगे भी कैसे क्योकि यहाँ विचारक नहीं श्रमिक बनाये जाते हैं, वे श्रमिक जिनकी अपनी सोच नहीं, अपना दर्शन नहीं, केवल आयातित विचार हैं।
जिज्ञासा एक मूल प्रवृत्ति है जो सीखने के लिए प्रेरित करती है।बच्चो में अधिक जिज्ञासा होने के कारण वे बहुत से प्रश्न करते हैं, हर वस्तु को अचरज से देखते हैं, कल्पनाओं में विचरण करते हैं। इसी से आगे चलकर उनकी स्रज्नात्मकता उभर कर सामने आती है। लेकिन अब उनकी कल्पनाशीलता बस्ते के भार से दब गयी है , उनकी जिज्ञासा से चमकती आँखों पर अब पत्थर जैसी मुर्दानगी छा गयी है, उनसे उनका बचपन छीन लिया गया है और उनको समय से पहले समझदार बनाया जा रहा है।
अब वे खिलखिलाकर कर नहीं हँसते हैं,अब उनको परियों की कहानियां आकर्षित नहीं करती हैं। उनका मुरझाया हुआ चेहरा इस बात का सबूत है की उनकी जिज्ञासाओ का बेदर्दी से क़त्ल कर दिया गया है, और बाद में उनकी जिज्ञासाओं और मुस्कराहट का हत्यारा ये समाज, उनसे आदर्श नागरिक होने की आशा करता है। अगर ये स्वार्थी समाज स्वयं अपना भला चाहता है तो इसे अपनी ही बनायीं उस परिधि को तोडना होगा जिसने मासूमों के विचारों और कल्पनाओं को क़ैद कर रखा है जिससे मासूम फिर से कल्पनाओं में विचरण कर सकें फिर से खिलखिलाकर हंस सकें, जिससे वे ग़लतियों से सीखें और अपने स्वयं के विचारों व सिद्धांतों का निर्माण कर सकें अन्यथा इस देश में कोई एडिसन या आइंस्टीन नहीं होगा।
होंगी तो सिर्फ़ मिटटी की बनी मशीनें।
----दीपक शर्मा 'सार्थक'
भारतीय परिवेश में बाल विकास की क्या स्थिति है यह एक गंभीर प्रश्न है, यहाँ की शिक्षा पद्धति तथा सामाजिक वातावरण सभी प्रश्न के घेरे में हैं। यहाँ पर अभिभावक अपने बच्चो को पूँजी की तरह समझते हैं जिस तरह पूँजी का निवेश होता है, उस पर नियंत्रण रखा जाता है उसी तरह यहाँ अभिभावक भी बच्चों का जिस क्षेत्र में चाहते हैं निवेश करते हैं और उन पर नियंत्रण रखते हैं। उनके विचार, उनका द्रष्टिकोण सभी कुछ अभिभावक ही निर्धारित करते हैं। वे बच्चो के विचारों पर अपने खोखले आदर्शवाद और अनुशासन की मोटी परिधि बना देते हैं मजाल है कि कोई बच्चा इसके उस तरफ भी देख ले।
वे हस्तांतरित विचार, परम्पराये जो अभिभावकों को उनके अपने अभिभावकों से मिली होती हैं, के सहारे बच्चे अपना जीवन यापन करते हैं उसके बाद यहाँ ये रोना रोया जाता है कि यहाँ शोध नहीं हो रहे, आविष्कार नहीं हो रहे हैं, और होंगे भी कैसे क्योकि यहाँ विचारक नहीं श्रमिक बनाये जाते हैं, वे श्रमिक जिनकी अपनी सोच नहीं, अपना दर्शन नहीं, केवल आयातित विचार हैं।
जिज्ञासा एक मूल प्रवृत्ति है जो सीखने के लिए प्रेरित करती है।बच्चो में अधिक जिज्ञासा होने के कारण वे बहुत से प्रश्न करते हैं, हर वस्तु को अचरज से देखते हैं, कल्पनाओं में विचरण करते हैं। इसी से आगे चलकर उनकी स्रज्नात्मकता उभर कर सामने आती है। लेकिन अब उनकी कल्पनाशीलता बस्ते के भार से दब गयी है , उनकी जिज्ञासा से चमकती आँखों पर अब पत्थर जैसी मुर्दानगी छा गयी है, उनसे उनका बचपन छीन लिया गया है और उनको समय से पहले समझदार बनाया जा रहा है।
अब वे खिलखिलाकर कर नहीं हँसते हैं,अब उनको परियों की कहानियां आकर्षित नहीं करती हैं। उनका मुरझाया हुआ चेहरा इस बात का सबूत है की उनकी जिज्ञासाओ का बेदर्दी से क़त्ल कर दिया गया है, और बाद में उनकी जिज्ञासाओं और मुस्कराहट का हत्यारा ये समाज, उनसे आदर्श नागरिक होने की आशा करता है। अगर ये स्वार्थी समाज स्वयं अपना भला चाहता है तो इसे अपनी ही बनायीं उस परिधि को तोडना होगा जिसने मासूमों के विचारों और कल्पनाओं को क़ैद कर रखा है जिससे मासूम फिर से कल्पनाओं में विचरण कर सकें फिर से खिलखिलाकर हंस सकें, जिससे वे ग़लतियों से सीखें और अपने स्वयं के विचारों व सिद्धांतों का निर्माण कर सकें अन्यथा इस देश में कोई एडिसन या आइंस्टीन नहीं होगा।
होंगी तो सिर्फ़ मिटटी की बनी मशीनें।
----दीपक शर्मा 'सार्थक'
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