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आखिर तुम ऐसे क्यों हो

क्यों तुम्हें स्वतंत्रता रास नहीं क्यों तुम पर दीप्त प्रकाश नहीं खुद पर तुमको विश्वाश नहीं बिन आश के जीवन जीते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो ! हसते हो आहः निकलती है शीतलता भी तुमको छूकर अग्नि समान धधकती है बंजर सा अंतःकरण लिए निर्वात में विचरण करते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो ! अलसाए से कुम्हलाए से खुदपर ही कहर सा ढाए से उत्साह रहित इस जीवन में बनकर तेजाब बरसते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो ! गलियों में विचरण करते हो स्थिर होने से डरते हो अँधेरे और सन्नाटे को हमराज़ बनाए फिरते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो ! सौंदर्य प्रेम का आकर्षण क्यों तुमको नहीं लुभाता है माधुर्य लिए बसंत मौसम क्यों तुमको नहीं सुहाता है ईर्ष्या, कटुता,आतंक लिए बिन बात झगड़ते रहते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो ! लालच के हवनकुण्ड में अपनी आहुती दे डाली नैतिकता और आदर्शो को तुमने बना दिया गाली  नीरसता भरे हदय में आनंद डुबोकर रखते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो ! इस तरह विकास किया तुमने की खुद का सत्यानाश किया निर्बल पर अत्याचार किया बलवानो को स्वीकार किया यदि यही सत्य है जीवन का तो क्यों मर -मर के जीते हो आखिर तुम ऐसे क्यों हो !     ...